भारत-पाकिस्तान सिंधु जल समझौता: एक महत्वपूर्ण विश्लेषण……….!!!!!!!

परिचय:

भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में कई बार तनाव देखने को मिला है, लेकिन कुछ समझौते ऐसे हैं जिन्होंने दोनों देशों के बीच संवाद और सहयोग का एक सेतु बनाया है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण समझौता है सिंधु जल समझौता (Indus Waters Treaty), जो आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक सफल जल बंटवारे का उदाहरण माना जाता है।

सिंधु जल समझौते का इतिहास:

1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद सिंधु नदी प्रणाली के पानी के उपयोग को लेकर दोनों देशों में विवाद उत्पन्न हुआ। इस समस्या का समाधान खोजने के लिए विश्व बैंक की मध्यस्थता से 19 सितंबर 1960 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने कराची में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए।

समझौते की मुख्य बातें:

सिंधु नदी प्रणाली में कुल छह नदियाँ शामिल हैं: सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास और सतलुज।

समझौते के अनुसार, पूर्वी नदियाँ (रावी, ब्यास, सतलुज) का पानी भारत को दिया गया, जबकि पश्चिमी नदियाँ (सिंधु, झेलम, चिनाब) का पानी पाकिस्तान को दिया गया।

भारत को पश्चिमी नदियों के पानी का सीमित उपयोग जैसे कृषि, घरेलू कार्यों और कुछ हद तक बिजली उत्पादन के लिए अधिकार दिया गया है, लेकिन बिना पानी के बहाव को बाधित किए।

संधि का महत्त्व

स्थायित्व और शांति:

1965, 1971, और 1999 (कारगिल युद्ध) जैसे संघर्षों के बावजूद, यह संधि लागू रही।

जल संसाधन प्रबंधन:

दोनों देशों के लिए जल सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिली।

अंतरराष्ट्रीय मिसाल:

सिंधु जल संधि को आज भी जल विवादों के समाधान के लिए एक आदर्श मॉडल माना जाता है।

हाल की चुनौतियाँ

हाल के वर्षों में, विशेषकर पुलवामा हमले (2019) के बाद, भारत ने संधि की समीक्षा और पश्चिमी नदियों का अधिकतम उपयोग करने के संकेत दिए थे। भारत ने कुछ बांध परियोजनाओं जैसे किशनगंगा और रटले हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स पर काम तेज किया है, जिससे पाकिस्तान ने आपत्ति जताई।

फिर भी, संधि औपचारिक रूप से बनी हुई है और इसके ढांचे के तहत ही मतभेद सुलझाए जा रहे हैं।

निष्कर्ष

सिंधु जल संधि भारत और पाकिस्तान के बीच एक ऐसा पुल है, जिसने दशकों से जल संकट को बड़े संघर्षों में बदलने से रोके रखा है। आज के समय में, जब जल संकट वैश्विक चिंता का विषय बन चुका है, सिंधु जल संधि की प्रासंगिकता और बढ़ गई है।

यह संधि न केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बल्कि भविष्य के जल संसाधन प्रबंधन के लिए भी एक सीख है कि बातचीत और सहयोग से कठिन समस्याओं का समाधान संभव है।

2 Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *